हिस्सा_2 शाने ग़ौसे आज़म- 5. आपके नाना हज़रत अब्दुल्लाह सूमई रज़ियल्लाहु तआला अन्हु के पास एक बेवा औरत अपने मुर्दा बच्चे को लाई और रोकर कहन...
हिस्सा_2
शाने ग़ौसे आज़म-
5. आपके नाना हज़रत अब्दुल्लाह सूमई रज़ियल्लाहु तआला अन्हु के पास एक बेवा औरत अपने मुर्दा बच्चे को लाई और रोकर कहने लगी कि मेरे शौहर की यही एक निशानी मेरे पास रह गयी है,अगर ये भी मुझसे जुदा हो गया तो मेरे जीने का सहारा टूट जायेगा,आपने ऊपर देखा कि उस बच्चे की ज़िन्दगी खत्म हो चुकी है आपने उससे वही कह दिया वो रोती हुई जाने लगी,रास्ते में हुज़ूर ग़ौसे पाक रज़ियल्लाहु तआला अन्हु जो कि अभी बच्चे थे आपने जो उसको रोते हुए देखा तो हाल पूछा तो उसने सारा माजरा कह सुनाया,आपको उसके हाल पर रहम आ गया और उससे फरमाया कि अम्मा जान आपका बच्चा मरा कहां है वो तो ज़िंदा है आप देखिये तो सही,अब जब उसने बच्चे को देखा तो वो वाक़ई ज़िन्दा और हरकत करता हुआ नज़र आया,उसी वक़्त आपने नाना जान भी आ गए और आपको घूरकर जो देखा तो आपने डरकर भागना शुरू कर दिया और आपके नाना आपके पीछे हो लिए,आप भागते हुए कब्रिस्तान में दाखिल हो गए और फरमाया कि ऐ क़ब्रिस्तान के मुर्दों मेरी मदद करो,आपका इतना कहना था कि 300 मुर्दे अपनी क़ब्र से बाहर निकल आये और आपके और आपके नाना के बीच दीवार बनकर खड़े हो गए,ये देखकर हज़रते अबदुल्लाह सूमई रज़ियल्लाहु तआला अन्हु रुक गए और दूर हुज़ूर ग़ौसे पाक रज़ियल्लाहु तआला अन्हु भी खड़े होकर मुस्कुराने लगे,आपके नाना ने अपना सरे अक़दस खम कर दिया और फरमाते हैं कि ऐ बेटा हम तुम्हारे मर्तबे को नहीं पहुंच सकते
📕 शरह हिदायके बख्शिश,सफह 143
यहां पर कोई ऐतराज़ कर सकता है क जब एक वली ने देखकर बता दिया कि उसकी ज़िन्दगी खत्म हो चुकी है तो फिर उस मुर्दा बच्चे को कोई ज़िंदा कैसे कर सकता है,तो इसके 2 जवाब हैं पहला तो उसी रिवायात में मौजूद है कि खुद हज़रत अब्दुल्लाह सूमई रज़ियल्लाहु तआला अन्हु फरमाते हैं कि "बेटा हम तेरे मरतबे को नहीं पहुंच सकते" मतलब साफ है कि वली तो बेशक वो हैं मगर उस मरतबे के नहीं कि मुर्दे जिला सकें जैसे कि मेरे ग़ौसे आज़म हैं और दूसरा ये कि तक़दीर यानि क़ज़ा की 3 किस्में हैं
1. क़ज़ाये मुबरम हक़ीक़ी
कि इल्मे इलाही मे किसी शय पर मुअल्ल्क़ नहीं यानि इसकी तबदीली नामुमकिन है,औलिया की इस तक रसाई नहीं बल्कि अम्बिया अलैहिस्सलाम भी अगर इसके बारे मे कुछ अर्ज़ करना चाहें तो उन्हे रोक दिया जाता है
2. क़ज़ाये मुअल्ल्क़ महज़
=कि फरिशतो के सहीफों में किसी शय मसलन दवा या दुआ वगैरह पर उसका मुअल्ल्क़ होना ज़ाहिर फरमा दिया गया है,इस पर अकसर औलिया की रसाई होती है उनकी दुआओं और तवज्जह से टल जाया करती है
3. क़ज़ाये मुअल्ल्क़ शबीह ब मुबरम
कि इल्मे इलाही मे वो किसी चीज़ पर मुअल्ल्क़ है लेकिन फरिश्तों के सहीफों में मुअल्ल्क़ होना मज़कूर नहीं,इस पर रसाई सिर्फ खास औलिया की ही होती है जैसा कि सय्यदना ग़ौसे आज़म रज़ियल्लाहो तआला अन्हु फरमाते हैं कि मैं क़ज़ाये मुबरम को टाल देता हूं
📕 बहारे शरीअत,हिस्सा 1,सफह 6-7
📕 अनवारुल हदीस,सफ़ह 120
तो हो सकता है कि उस बच्चे की मौत क़ज़ाये मुअल्लक़ शबीह ब मुबरम के तहत हुई हो यानि मौत तो हुई और यही फरिश्तों के सहीफों में दर्ज है मगर इसके आगे का ज़िक्र नहीं जहां से हज़रत अब्दुल्लाह सूमई ने देख लिया हो मगर इससे आगे की रसाई उनकी भी नहीं है मगर सय्यदना ग़ौसे आज़म रज़ियल्लाहु तआला अन्हु ने वो देख लिया कि बेशक मौत तो हुई मगर वो मुअल्लक़ है यानि ठहरी हुई है और आपने अपने रब के दिए हुए इख्तियार से उस मुर्दा बच्चे को फिर से ज़िंदा फरमा दिया और अम्बिया व औलिया का ये इख्तियार क़ुर्आन मुक़द्दस से साबित है,मौला तआला फरमाता है कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने कहा
कंज़ुल ईमान
मैं तुम्हारे लिए मिटटी से परिन्द की मूरत बनाता हूं फिर उसमे फूंक मारता हूं तो वो फौरन ज़िंदा हो जाती है अल्लाह के हुक्म से,और मैं शिफा देता हूं मादरज़ाद अन्धे और सफेद दाग वाले को और मैं मुर्दे जिलाता हूं अल्लाह के हुक्म से
📕 पारा 3,सूरह आले इमरान,आयत 49
अंधों को आंख देना कोढ़ियों को शिफा देना मिट्टी के जानवर को ज़िन्दा करके उड़ा देना ये सब खुदा के काम हैं मगर खुदा के हुक्म से ये सारे काम हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम कर रहे हैं,अब कोई कह सकता है कि वो तो नबी थे उनकी बात और है तो इसका जवाब ये है कि बेशक वो नबी ही थे खुदा तो नहीं थे जब उनके लिए मुर्दे जिलाने का इख्तियार हो सकता है तो मुस्तफा जाने रहमत सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम के लिए और उनकी उम्मत के औलिया के लिए वही इख्तियार क्यों नहीं हो सकता,फिर यहां पर एक ऐतराज़ और किया जा सकता है कि क़ुर्आन में तो लिखा है कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने अल्लाह के हुक्म से जिलाया,अरे जनाब तो हम कब कहते हैं कि किसी अम्बिया व औलिया ने खुद अपने इख्तियार से कोई काम किया हो हम अहले सुन्नत व जमाअत का यही अक़ीदा है कि बेशक वो हर काम कर सकते हैं मगर खुदा की मर्ज़ी से यानि उसके दिए हुए इख्तियारात से,और अगर कोई ये कहता है कि अम्बिया व औलिया को खुदा से कुछ लेने की ज़रूरत नहीं है वो अपनी मर्ज़ी और पावर से भी ये काम कर सकते हैं तो ऐसा शख्स हमारे नज़दीक काफिर है क्योंकि बगैर खुदा के दिए हुए कोई एक ज़र्रा भी इधर से उधर नहीं कर सकता,मगर आज कुछ लोग तो अम्बिया व औलिया को अल्लाह का दिया हुआ इख्तियार भी नहीं मानते हैं तो ऐसा शख्स भी क़ुर्आन का मुनकिर है और वो भी काफिर है
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